श्री आद्यशंकराचार्य जी की वाणी

श्री आद्यशंकराचार्य जी की वाणी
(विवेक चूड़ामणि से)

वदन्तुशास्त्राणि यजन्तु देवान् कुर्वन्तु कर्माणि भजन्तुदेवता:।
आत्मैक्यबोधेनविना विमुक्तिर्न सिध्यतिब्रम्हशतान्तरेsपि।।
(विवेक चूड़ामणि--६)
भले ही कोई शास्त्रों की व्याख्या करे, देवताओं का भजन करे, नाना शुभ कर्म करे अथवा देवताओं को भजे, तथापि जब तक आत्मा और परमात्मा की एकता का बोध नहीं होगा, तब तक सौ ब्रम्हा के बीत जाने पर भी (अर्थात् सौ कल्प में भी) मुक्ति नहीं हो सकती।

दुर्लभं त्रयमेवैतद्देवानुग्रहहेतुकम्।
मनुष्यत्वं मुमुक्षत्वं महापुरुषसंश्रय:।।
(विवेक चूड़ामणि---३)
भगवत्कृपा ही जिनकी प्राप्ति का कारण है, वे मनुष्यत्व, मुमुक्षुत्व (मुक्त होने की इच्छा) और महान् पुरुषों का संग---ये तीनों ही दुर्लभ हैं।

लब्ध्वा कथञ्चित्ररजन्म दुलभं तत्रापि पुंस्त्वं श्रुतिपारर्शनम्।
यः स्वात्ममुक्तौ न यतेत मूढ़धी: सह्यात्महास्वं विनिहंत्यसद्ग्रहात्।।
(विवेक चूड़ामणि—४)
किसी प्रक्रार इस दुर्लभ मनुष्य जन्म को पाकर और उसमें भी, श्रुति के सिद्धांत का यथार्थ ज्ञान होता है, ऐसा पुरुषत्व पाकर जो मूढ़बुद्धि अपनी आत्मा की मुक्ति के लिए प्रयत्न नहीं करता, वह निश्चित ही आत्मघाती है। वह असत्य में आस्था रखने के कारण अपने को नष्ट करता है।,

इतः कोन्वस्तिमुढ़ात्मा यस्तुस्वार्थे प्रमाद्यति।
दुर्लभ मानुषं देहं प्राप्य तत्रापि पारुषम्।।
(विवेक चुड़ामणि---५)
दुर्लभ मनुष्य देह और उसमें पुरुषत्व को पाकर जो (मोक्ष रूप) स्वार्थ-साधन में प्रमाद करता है इससे अधिक मूढ़ और कौन होगा?

वाग्वैखरी शब्दझरीशास्त्रव्याख्यान कौशलम्।
वैदुष्यं विदुषां तद्वद्द्भुक्तये न तु मुक्तये।।
(विवेक चूड़ामणि—६०)
विद्वानों की वाणी की कुशलता, शब्दों की धारावाहिकता, शास्त्र व्याख्या की कुशलता और विद्वत्ता, भोग ही का कारण हो सकती है, मोक्ष का नहीं।

अविज्ञाते परेतत्त्वे शास्त्राधीतिस्तुनिष्फला।
विज्ञातेsपिपरेतत्त्वे शास्त्राधीतिस्तुनिष्फला।।
(विवेक चूड़ामणि---६१)
परमतत्त्वम् को यदि न जाना तो शास्त्रायध्ययन निष्फल (व्यर्थ) ही है और यदि परमतत्त्वम् को जान लिया तो भी शास्त्र अध्यन निष्फल (अनावश्यक) ही है।

शब्दजालं महारण्यं चित्तभ्रमणकारणम्।
अतः प्रयत्नाज्ज्ञातव्यं तत्त्वज्ञात्तत्त्वमात्मनः।।
(विवेक चूड़ामणि—६२)
शब्द जाल (वेद-शास्त्रादि) तो चित्त को भटकाने वाला एक महान् बन है, इस लिए किन्हीं तत्त्व ज्ञानी महापुरुष से यत्न पूर्वक आत्मतत्त्वम् को जानना चाहिए।

अज्ञानसर्पदष्टस्य ब्रम्हज्ञानौषधम् बिना।
किमु वेदैश्च शास्त्रैश्च किमु मंत्रै: किमौषधै।।
(विवेक चूड़ामणि---६३)
अज्ञान रूपी सर्प से डँसे हुए को ब्रम्ह ज्ञान रूपी औषधि के बिना वेद से, शास्त्र से, मंत्र से क्य लाभ?

न गच्छति बिना पानं व्याधिरौषधशब्दतः।
बिना परोक्षानुभवं ब्रम्हशब्दैर्न मुच्यते।।
(विवेक चूड़ामणि----६४)
औषध को बिना पीये केवल औषधि शब्द के उच्चारण से रोग नहीं जाता। उसी प्रकार अपरोक्षानुभव के बिना केवल मैं ब्रम्ह हूँ ऐसा कहने से कोई मुक्त नहीं हो सकता।

अकृत्वा दृश्यविलमज्ञात्वा तत्त्वमात्मनः।
बाह्य शब्दै: कुतो मुक्तिरुक्तिमात्रफलैर्नृणाम्।।
(विवेक चूड़ामणि—६५)
विना दृश्य प्रपंच का विलय किये और बिना आत्मतत्त्वम् को जाने, केवल बाह्य शब्दों से जिनका फल केवल उच्चारण मात्र ही है, मनुष्यों की मुक्ति कैसे हो सकती है?

न योगेन न सांख्येन कर्मणा नो न विद्या।
ब्रम्हात्मैकत्वबोधे न मोक्ष: सिध्यति नान्यथा।।  
(विवेक चूड़ामणि----५८)
मोक्ष न योग से प्राप्त (सिद्ध) होता है और न सांख्य से; न कर्म से और न विद्या से। केवल बह्यत्मैक्य बोध (ब्रम्ह और आत्मा की एकता के बोध) से ही होता है और किसी प्रकार नहीं। 

शरीरपोषणार्थी सन् य आत्मानं दिदृक्षति।
ग्राहं दारूधिया धृत्वा नदी तर्तुं स इच्छति।।
(विवेक चूड़ामणि---८६)
जो शरीर पोषण में लगा रहकर आत्मतत्त्वम् को देखना चाहता है, वह मानो काष्ठ-बुद्धि से ग्राह को पकड़कर नदी पार करना चाहता है।

मोह एव महामृत्युर्मुमुक्षोर्वपुरादिषु।
मोहो विनिर्जितो येन स मुक्तिपदमर्हति।।
(विवेक चूड़ामणि—८७)
शरीरादि में मोह रखना ही मुमुक्ष की बड़ी भारी मौत है; जिसने मोह को जीता है वही मुक्तिपद का अधिकारी है।

मोहं जहि महामृत्यु देहदारसुतादिषु।
यं जित्वा मुनयो यान्ति तद्विष्णो:  परमं पदम्।।
(विवेक चूड़ामणि—८८)
देह, स्त्री और पुत्रादि में मोहरूप महामृत्यु को छोड़; जिसको जीतकर मुनिजन भगवान् के उस परमपद को प्राप्त होते हैं।

अन्तः करणमेतेषु चक्षुरादिषु वर्ष्मणि
अहमित्यभिमानेन तिष्ठत्याभासतेजसा।।
(विवेक चूड़ामणि—१०५)
शरीर के अन्दर इन चक्षु आदि इन्द्रियों में चिदाभास के तेज से व्याप्त हुआ अन्तःकरण मैंपन (अहं) का अभिमान करता हुआ स्थिर रहता है।

अहंकार: स विज्ञेय कर्त्ता भोक्ताभिमान्ययम्।
सत्त्वादि गुणयोगेन चापस्थात्रयमश्नुते।।
(विवेक चूड़ामणि१०६)
इसी को अहंकार जानना चाहिए। यही कर्ता, भोक्ता तथा मैंपन का अभिमान करने वाला है और यही सत्त्व आदि गुणों के योग से तीनों अवस्थाओं को प्राप्त होता है।

विषयाणामानुकूल्ये सुखी दु:खी विपर्यये।
सुखं दु:खं च तद्धर्म: सदानन्दस्य नात्मनः।।
(विवेक चूड़ामणि—१०७)
विषयों की अनुकूलता से यह सुखी और प्रतिकूलता से दु:खी होता है। सुख और दु:ख इस अहंकार के ही धर्म हैं, सबके आत्मस्वरूप सदानन्द के नहीं।

विशोकआन्दघनो विपश्चित्स्वयं कुतश्चिन्नविभेति कश्चित्।
नान्योsस्ति पंथाभवबन्धमुक्तेर्विना स्वतत्त्वावगमं मुमुक्षो:।।
(विवेक चूड़ामणि—२२४)
वह अति बुद्धिमान पुरुष शोक रहित और आनन्दघन रूप हो जाने से कभी किसी से भयभीत नहीं होता। मुमुक्ष पुरुष के लिए आत्मतत्त्वम् के ज्ञान को छोड़कर संसार-बंधन से छूटने का और कोई मार्ग नहीं है।

ब्रम्हाभिन्नत्वविज्ञानं भवमोक्षस्य कारणम्।
येनाद्वितीयमानन्दं ब्रम्ह सम्पद्यते बुधै:।।
(विवेक चूड़ामणि—२२५)
ब्रम्ह और आत्मा के अभेद का ज्ञान ही भवबन्धन से मुक्त होने का कारण है, जिसके द्वारा बुद्धिमान पुरुष अद्वितीय आनन्दरूप ब्रम्हपद को प्राप्त कर लेता है।

मातापित्रोर्मलोद्भूतं मलमांसमयं वपु:।
त्यक्त्वा चाण्डालवद्दूरं ब्रह्मीभूय कृतीभव ॥
(विवेक चूडामणि--२८८)
माता-पिता के मल से उत्पन्न तथा मल-मांस से भरे हुए इस शरीर को चाण्डाल के समान दूर से ही त्याग कर ब्रम्ह भाव में स्थिर होकर कृतकृत्य हो जाओ।  

चिदात्मनि सदानंदे देहारूढामहंधियम्।
निवेश्य लिंगमुत्सृज्य केवलो भव सर्वदा।।
(विवेक चूड़ामणि—२९१)
देह में व्याप्त हुई अहंबुद्धि को सच्चिदानन्द रूप सदानन्द में स्थित करके लिंग शरीर के अभिमान को छोड़ कर सदा अद्वितीय रूप से स्थित रहो।

अतो: विचार: कर्त्तव्यो जिज्ञासोरात्मवस्तुनः।
समासाद्य दयासिंधु गुरुं ब्रम्हविदुत्त्मम्।।
(विवेक चूड़ामणि---१५)
अतः ब्रम्हवेत्ताओं में श्रेष्ठ दयासागर गुरुदेव की शरण में जाकर जिज्ञासु को आत्मतत्त्वम् की जानकारी करनी चाहिए।  

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