'मैं' के प्रकार
एक मात्र भगवदवतार ही ‘मैं’ कहने का हकदार है क्योंकि भगवान ही है जो किसी के भी ‘मैं-मैं’ को – सम्पूर्ण ‘मैं-मैं’ को ही अपने से ही उत्पन्न और संचालन तथा अपने में ही विलय व समाप्त कर जना-दिखा सकता है अन्य किसी भी ‘मैं’ में यह सामर्थ्य नहीं कि किसी भी ‘मैं’ की उत्पत्ति-स्थिति और लय-विलय समाप्ति कर सके फिर तो उसे ‘मैं-मैं’ कहने-बोलने का अधिकार कहाँ ? क्योंकि शेष सभी प्रकार के ‘मैं’ अधूरे झूठे और गलत हैं। मुझसे जान-देख लें ।
---------------- सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस
वास्तविक ‘’मैं’’ को
कैसे जानें?
‘वास्तविक मैं’ की स्पष्टतः जानकारी एकमेव एकमात्र ‘तत्त्वज्ञान’ में ही
‘’मैं’’ मुख्यतः छः प्रकार का होता है!
तीन लौकिक (सांसारिक) और तीन पारलौकिक (धार्मिक)।
पहला तीन:- जो लौकिक (सांसारिक) है वह घोर झूठ
होता है फिर भी संसार में उसी की मान्यता-मर्यादा अधिकतर लोग देते हैं।
दूसरा तीन:- जो पारलौकिक (धार्मिक) है उसमें भी क्रमशः
पहला-दूसरा भी झूठ ही है मगर कम ----बहुत ही कम यानी दूसरा वाला इतना कम झूठ होता
है जिसे तत्त्वज्ञान के सिवाय दूसरा कोई जान-पकड़ सकता ही नहीं, केवल
एकमात्र तत्त्वज्ञान ही है जो सपष्टतः जानता-देखता है और जो दूसरे तीन का जो तीसरा
‘मैं’ है वह सत्य ही नहीं अपितु
परमसत्य होता है। उसी से ही और उसी में ही जड़-चेतन सम्पूर्ण
सृष्टि-ब्रम्हाण्ड होता-रहता है। वह
भगवदवतार बेला के सिवाय भू-मण्डल क्या ब्रम्हाण्ड में भी कहीं भी और कभी भी नहीं
रहता बल्कि ब्रम्हाण्ड ही उसी से और उसी में होता-रहता है। उसे कण-कण में और सबमें
कहना-लिखना घोर अज्ञानता तो है ही, घोर मूढ़ता भी है। मैं
प्रमाणित करने को तैयार हूँ।
पहला -- लौकिक - सांसारिक वाला
१. शरीर वाचक ‘मैं’
शरीर
वाचक ‘मैं’ जीव तथा शरीर का संयुक्त रूप परंतु जीव प्रधान
न होकर यह शरीर-प्रधान होता है अर्थात् यहाँ पर शरीर से अलग स्वतंत्र रूप से जीव
का आभास ही नहीं हो पाता है। जीव पूर्ण रूपेण शरीरमय स्थिति में ही भासता तथा
प्रयोग होता है। एकमात्र शरीर का नाम-रूप-स्थान ही इसका परिचय-पहचान होता है।
समस्त सांसारिक-मानव (गृहस्थ जीवन वाला) ही इस वर्ग में आता है। शरीर से
(इन्द्रियों द्वारा) कार्य करते हुये शरीर के लिए ही सम्पूर्ण व्यवहार किया जाता
है। सांसारिक सुख-शांति व मान-मर्यादा ही इस वर्ग का आधार व लक्ष्य होता है। धर्म
व ज्ञान के क्षेत्र में यह वर्ग पशुवत, मूढ़, जड़ व अज्ञानी कहा जाता है। यह ‘मैं’ बिल्कुल ही मिथ्या यानी बिल्कुल ही झूठ होता है,
क्योंकि जीव (अहम्) से अलग होकर इसका कोई अस्तित्त्व ही नहीं रह जाता है। जैसे मैं
लक्ष्मण हूँ अर्थात् मेरा नाम लक्ष्मण है, अयोध्या मेरा
स्थान है। मैं शरीर हूँ----यह संसार का सबसे पहला झूठ का बीजारोपण होता है जो आगे
बढ़-फैलकर मेरा माता-पिता शरीर, मेरे हित-नात-रिश्तेतार
शरीर-----मेरा-मेरा रूप झूठ का पौध हो जाता है, मात्र झूठ ही
नहीं अपितु यह स्वप्न से4 भी बदतर झूठ होता है। इसे मैं तर्क से सिद्ध नहीं करता
हूँ बल्कि साक्षात् दिखलाता हूँ।
२.
गुण वाचक ‘मैं’
गुण
वाचक ‘मैं’ भी शरीर वाचक के समान ही प्रयुक्त होता है।
इसके सभी क्रिया-कलाप तथा आधार व लक्ष्य भी शरीर वाचक के समान ही होता है परंतु इस
वर्ग के साथ गुण विशेष भी चिपका या जुड़ा होता है। इसलिए शारीरिक परिचय के साथ ही
परन्तु प्रधानता के रूप में इस गुण-विशेष का भी एक परिचय होता है जैसे मैं बी॰ए॰
हूँ, मैं एम॰ए॰ हूँ, मैं पी॰एच॰डी॰ हूँ, मैं एम॰बी॰बी॰एस॰, एम॰डी॰,
एल॰एल॰बी॰, एल॰एल॰एम॰, बी॰ई॰बी॰काम॰, आचार्य, डी॰लिट॰ वैज्ञानिक,
मनोवैज्ञानिक आदि-आदि ‘मैं’ हूँ। इस
प्रकार शारीरिक नाम-रूप-स्थान के साथ ही गुण या उपाधि का भी नाम-रूप-स्थान होता
है। जैसे उपर्युक्त जीतने नाम हैं, उनका वह उपाधि-पत्र ही
रूप तथा जहाँ से उपाधियाँ प्राप्त होती हैं वह स्थान होता है। गुण विशेष के
साथ-साथ नाम-यश प्रतिष्ठा के रूप में यह रहता है।
यह
स्वतः ही जानने समझने की चीज है कि ‘मैं’ जब शरीर
ही नहीं होता है – शरीर कहना संसार का सबसे पहला झूठ होता है। यह मैं सन्त
ज्ञानेश्वर मात्र कह-लिख थोड़े ही रहा हूँ, साक्षात् स्पष्टतः
दिखाने को भी तो कह रहा हूँ। जब ‘मैं’
शरीर ही नहीं है तो ‘मैं’ गुण-उपाधि
बी॰ ए॰, बी॰ एस॰ सी॰, एम॰ ए॰, एम॰ एस॰ सी॰ आदि कैसे हो जाएगा ? यह मेरी
गुणवत्ता-उपाधि है – यह ‘मैं’ तो शरीर
वाले से भी बदतर झूठ है जबकि पारिवारिकता-सांसरिकता में इन्ही की ही बड़ी ही
मान्यता-मर्यादा है जो घृणित झूठ होने के चलते त्याज्य है मगर संसार-सांसारिकों
में – नौकरियों आदि में अज्ञानी गृहस्थ जन सबसे बड़ी मान्यता-मर्यादा इसी को ही
देते हैं- दे रहे हैं जबकि यह झूठ तो है ही—आसुरी यानी भोग प्रधान भी है।
३. कर्म अथवा पद वाचक ‘मैं’
कर्म
अथवा पद वाचक ‘मैं’ भी गुण वाचक ‘मैं’ के समान ही होता है। इस वर्ग में भी प्रथम वर्ग वाला शरीर वाचक ‘मैं’ तो रहता ही है परन्तु गुण के स्थान पर कर्म
अथवा पद प्रधान हो जाता है जिसके कारण गुण वाचक परिचय के स्थान पर कर्म अथवा पद
वाचक परिचय भी प्रतिस्थापित हो जाता है। शरीर का शक्ति-सामर्थ्य भी कर्म अथवा पद
क्षेत्र के अनुसार परिवर्तित हो जाता है। इस वर्ग के अन्तर्गत कर्म अथवा पद प्रधान
होता है। जैसे मैं कर्मचारी हूँ, मैं अधिकारी हूँ, मैं एस॰ पी॰ हूँ, मैं डी॰ एम॰ हूँ, मैं मन्त्री,
मुख्यमन्त्री हूँ, प्रधानमन्त्री हूँ, मैं न्यायधीश हूँ, मैं मुख्य न्यायधीश हूँ, मैं राष्ट्रपति हूँ, मैं राजा हूँ, आदि आदि ये जितने भी नाम हैं सभी कर्म अथवा पद प्रधान होते हैं। इस कारण
ये कर्म अथवा पद ‘मैं’ हैं। यह बात तो
सत्य ही है कि प्रत्येक का लगाव शरीर विशेष से तो है ही। फिर भी इसमें कर्म अथवा
पद क्षेत्र ही स्पष्ट रूप में भास रहा है। यह प्रत्येक परिचय कर्म अथवा पद वाचक ही
है, शरीर वाचक मात्र नहीं।
ये
जितने लोग हैं, शरीर की जानकारी व सांसारिक जानकारी तो इन लोगों को बहुतायत मात्रा में
होती ही है फिर भी अपने शरीर के अन्दर रहने वाले मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार रूप अन्तः चतुष्टय सहित सूक्ष्म शरीर
रूप जीव-रूह-सेल्फ-स्व-अहं तथा इस जीव से भी ऊपर – श्रेष्ठ आत्मा ईश्वर-नूर-सोल आदि
के विषय में इन लोगों को तो बिल्कुल ही जानकारी नहीं रहती है, जबकि परमात्मा तो आत्मा ज्योतिर्मयशिव से भी ऊपर और श्रेष्ठ यानी
सर्वश्रेष्ठ तथा आत्मा-ईश्वर-ब्रम्ह-नूर-सोल-दिव्य ज्योति शिव-शक्ति का भी
उत्पत्ति संचालन और लय-प्रलय कर्ता रूप परमपिता हैं अर्थात् जड़ चेतन रूप सारा
ब्रम्हाण्ड ही इन्ही से उन्ही के द्वारा और इन्ही मैं रहता है।
सब
कुछ के बावजूद भी इन लोगों की जानकारी, पहुँच व समस्त व्यवहार आदि मात्र
शरीर तक ही सीमित रहता है। इनके अन्दर एकमात्र अभिमान (अहंकार) ही कार्य करता है
जिसकी जानकारी स्वयं इन्हे ही नहीं रहती है। हालांकि वास्तविकता यह है कि इन्हे यह
भी नहीं मालूम कि यह शरीर किसके द्वारा क्रियाशील है। इस शरीर के अन्दर वह क्या
चीज है जिसके द्वारा मुख बोलता है, पैर चलता है, हाथ कार्य करता है, आँख देखती है, कान सुनता है आदि-आदि कार्य सम्पूर्ण कर्म ही होते हैं, तथा जिसके बिना यह शरीर मुर्दा या मृतक घोषित हो जाती है और उपर्युक्त
सभी कर्म ही, या उच्चतम पदों पर पदासीन वाला अधिकारी ही
समाप्त हो जाते हैं। शरीर ही जब समाप्त हो जाती है तो ये गुण और कर्म वाचक ‘में’ कहाँ रह जायेंगे ?
अतः
शरीर वाचक ‘मैं’ के साथ गुण वाचक और कर्म अथवा पद वाचक दोनों
वर्गों का भी सम्पूर्ण मैं-मैं, तू-तू एक प्रकार का जो
अभिमान या अहंकार ही होता है जिसे स्वयं अपने विषय में अथवा अपनी जानकारी नहीं
होती है कि शरीर के माध्यम से आने वाली आवाज ‘मैं’ कौन है ? कहाँ से आती है ?
किसलिए आती है ? और अन्त में शरीर छोड़कर कहाँ चली जाती है? जीव वाचक ‘मैं’ के शरीर को
छोड़ते ही सभी ही समाप्त हो जाया करते हैं।
इस
प्रकार जिसे अपने विषय में ही कि ‘मैं’
शरीर-जिस्म-बॉडी है कि ‘मैं’
जीव-रूह-सेल्फ-स्व-अहं है कि ‘मैं’
आत्मा-ईश्वर-ब्रम्ह-नूर-सोल-स्पिरिट-शिव-हँसो-दिव्य ज्योति है कि
परमात्मा-परमेश्वर-परमब्रम्ह-परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप खुदा-गॉड-भगवान
है – इन चारों में से असली – सही ‘मैं’
कौन है ? यह भी जिसे जानकारी न हो और वह कुछ जानकार बनता हो, अपने को किसी पद का पदाधिकारी आदि गुमान-अभिमान पूर्वक कहता हो तो यह
उसका बनना व कहना अभिमान व अहंकार के सिवाय और कुछ नहीं होता है और यह अभिमान व
अहंकार मिथ्या होता है और मिथ्या विषय वस्तु या बात का ठिकाना ही क्या ? सब भगवत् कृपा से
दूसरा – पारलौकिक - धार्मिक वाला
१. जीव वाचक ‘मैं’
शरीर+जीव
= मानव ।
शरीर+अहं
= मानव ।
जीव
वाचक ‘मैं’, शरीर के अंदर रहते हुये शरीर के माध्यम से
किसी भी कार्य को करने या कराने वाला जीव-रूह-सेल्फ-स्व-अहं मात्र ही है। शारीरिक ‘मैं’ के अस्तित्त्व को तो प्रत्येक ‘मैं’ के साथ रहना ही है, परंतु
जानना व देखना तो यह है कि यह शरीर व शारीरिक ‘मैं’ शेष पाँच प्रकार के ‘मैं’ में
से किस प्रकार के ‘मैं’ से सम्बंधित व
निर्देशित होकर कार्य कर रहा है। यह जिस ‘मैं’ से सम्बंधित व निर्देशित होकर कार्य करता है। उसी ‘मैं’ के कर्त्तव्य व शक्ति-सामर्थ्य से युक्त हो जाता है। परंतु इसके लिए यह
अत्यावश्यक होता है कि पहले वाले ‘मैं’
(सामान्य ‘मैं’) को पश्चात् वाले ‘मैं’ (श्रेष्ठतर ‘मैं’) में निष्कपटता पूर्वक पूर्णरूपेण विलय कर-करा दिया जाय क्योंकि जिस
प्रकार का विलय होगा उसी प्रकार की प्राप्ति होगी। अर्थात् जिस प्रकार से पहले
वाले का त्याग होता है उसी प्रकार से पश्चात् वाले की प्राप्ति होती है। अतः त्याग, प्राप्ति के लिए अनिवार्यतः अग्रिम पहलू है।
जीव
वाचक ‘मैं’ जो तत्त्वज्ञान व योग-अध्यात्म की साधना से
सम्बंधित सद्ग्रन्थों को पढ़ने (अध्ययन) से, सत्संग से तथा
शास्त्रीय मनन-चिंतन से शरीर से अलग एक अस्तित्त्व का भान तो होता है परंतु
तत्त्वज्ञानदाता या सद्गुरु या अवतारी द्वारा देय तत्त्वज्ञान तथा योग-साधना कराने
वाले या गुरु या योगी-महर्षि-महात्मा-सन्त द्वारा देय योग-क्रिया (आध्यात्मिक
साधना) से रहित-होने के कारण एक प्रकार का मात्र अहंकार ही होता है क्योंकि स्वयं
में तो इसका कोई अस्तित्त्व होता नहीं। फिर भी इसे ऐसा आभास होता है कि मैं ही
आत्मा हूँ, मैं ब्रम्ह हूँ, मैं ज्ञानी
हूँ। अयम् आत्मा ब्रम्ह, अहम् ब्रम्हास्मि ‘जीवहि ब्रम्ह निहारि’, आदि आदि सब मैं ही हूँ। मेरे
अतिरिक्त कहीं कुछ भी नहीं है।
परंतु
असलियत या वास्तविकता यह है कि इन्हें साधना (योग-अध्यात्म की) तथा तत्त्वज्ञान से रहित होने के कारण आत्मा या ईश्वर या नूर या सोल या
ब्रम्ह या शिव-शक्ति और परमात्मा या परमेश्वर या परमब्रम्ह या गॉडया खुदा होना तो
दूर रहा, इनको (आत्मा और परमात्मा) (soul and GOD) नूर तथा खुदा की दर्शन व पहचान जानकारी भी
नहीं हो पाती है। फिर भी अभिमान व अहंकार के कारण, इनसे बड़ा
पुरी पृथ्वी पर कोई नहीं रहता है। श्री करपात्री, श्री
शंकराचार्य (वर्तमान आद्य वाले नहीं), विवेकानन्द, स्वामी रामतीर्थ श्री निरीक्षण, मुरारी बापू, आशाराम, सुधांशु, समस्त
मण्डलेश्वर-महामण्डलेश्वर, किरीट भाई पाण्डुरंग
शास्त्री-देवराह बाबा आदि-आदि इन लोगों का अपना तो कोई अस्तित्त्व होता नहीं। फिर
भी मिथ्याभिमान-मिथ्याहंकार वश अपने आप को सर्वोच्च मान बैठते व घोषित करने-कराने
लगते हैं।
वेद-उपनिषद्, रामायण, गीता, पुराण, बाइबिल-कुरान, गुरुग्रन्थ साहब आदि-आदि सद्ग्रन्थ मात्र ही
इन लोगों का आधार होता है, उसमें से भी योग-साधना तथा
तत्त्वज्ञान से सम्बंधित क्रियायेँ तथा बातें समझ मेन तो आती नहीं क्योंकि
योग-साधना से सम्बंधित क्रियायों के लिए योग-अध्यात्म की साधना की जानकारी, अभ्यास और आत्म-दर्शन (आत्मा का दर्शन) के लिए दिव्य-दृष्टि (ध्यान) की
और तत्त्वज्ञान के लिए परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप खुदा-गॉड-भगवान का
भू-मण्डल पर अवतरण व उसी के द्वारा कृपा प्रदान कर शरणागत स्वीकार्य तथा
तत्त्वदृष्टि या ज्ञानदृष्टि या सम्यक्-दृष्टि या ज्ञान-चक्षु आदि का होना
अत्यावश्यक होता है, जो इनके (जीव-वाचक ‘मैं’ वाले के) पास बिल्कुल ही नहीं होती है।
परमात्मा
तो परमात्मा होता है, आत्मा और जीव की भी इन्हें जानकारी नहीं रहती है। फिर भी मिथ्याभिमान व
मिथ्याज्ञानाभिमान वश होने के कारण इनका अहंकार किसी से कम नहीं होते है !
परमात्मा व धर्म का ज्ञान भले ही न हो परन्तु धर्म-सम्राट,
श्री श्री अनंत श्री, ब्रम्हनिष्ठ व ब्रम्हज्ञ आदि-आदि
उपाधियों से स्वयं विभूषित कर-होकर समाज से धर्म का सफाया का अपने क्षमता-शक्ति भर
प्रयास किए बिना ये लोग चैन से नहीं बैठते हैं। ये जानकारी के मामले में रावणीय
विद्वता वाले ही होते हैं, ऋषि-महर्षि,
योगी-सन्त-महात्मा वाला भी नहीं, भगवान वाला की तो कल्पना ही
नहीं, फिर भी भगवान-अवतारी ही बनने लगते हैं। छोटा होने-रहने
में इन्हें अपने को अपमान लगता है। सद्ग्रंथों के अंतर्गत तत्त्वज्ञान व योग, परमात्मा व आत्मा की प्राप्ति से सम्बंधित विशिष्ट शब्दों को धातु, शब्दरूप, प्रत्यय, अलंकार, छंद आदि के माध्यम से तोड़-मरोड़ कर अर्थ का अनर्थ कर यथार्थतः (धर्म से)
इतना दूर स्वयं को और समाज को भी फेंक देते हैं कि उनके अनुयायी परमतत्त्वम् रूप
आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवत्त्त्वम् रूप परमात्मा के अवतरण वाली शरीर श्री विष्णु
जी महाराज, श्री रामचन्द्र जी महाराज,
श्री कृष्ण जी महाराज आदि से रावण व द्रोणाचार्य, कृपाचार्य
आदि जैसे संघर्ष तथा युद्ध तक किए बिना नहीं माने और आज (वर्तमान में) भी
मिथ्याज्ञान प्रचार के माध्यम से भगवान्-भगवदवतारी बनने,
अपने आप को घोषित करने-करवाने से नहीं मान रहे हैं।
अतः
जीव वाचक ‘मैं’ परमात्मा व धर्म का एकमात्र परम आकाश रूप
परमधाम से भू-मण्डल पर अवतरण का कारण सम्पूर्ण मैं-मैं,
तू-तू रूपी अहंकार का सफाया तथा परमात्मा-खुदा-गॉड जो शरीर नहीं है अपितु एक
सर्वोच्च शक्ति-सत्ता है, परमतत्त्वम् रूप है, के अस्तित्त्व (धर्म) को स्थापित करना व दुष्ट,
अत्याचारियों का सफाया करना तथा सत्पुरुषों का राज्य स्थापित कर अमन चैन
(शान्ति-आनन्द) का समाज स्थापित करना होता है।
अतः
सत्य-ज्ञान (तत्त्वज्ञान) द्वारा मिथ्याज्ञानाभिमान रूप मिथ्याहंकार को भू-मण्डल
से समाप्त करके तत्त्वज्ञानरूपी सत्यज्ञान के माध्यम से परमात्मा के अस्तित्त्व को
स्थापित करना-करवाना अवतार का एकमात्र लक्ष्य होता है। यही कारण है जिससे कि
तथाकथित समस्त भगवान-सद्गुरु-भगवदवतारी ही अहंकारवश ही प्रत्यक्षतः तथा परोक्ष रूप
से भी अवतारी सत्ता की निन्दा, आलोचना, विरोध, संघर्ष तथा युद्ध तक करने लगते थे तथा कर भी रहे हैं। यही प्रक्रिया आदि
से ही आती रही है तथा (वर्तमान में) भी चल रही है। जो नहीं चलनी चाहिए।
२. आत्मा वाचक ‘मैं’
शरीर
+ जीव + आत्मा = योगी-महर्षि-ब्रम्हर्षि-आध्यात्मिक सन्त-महात्मा ।
शरीर
+ अहं + सः = योगी-महर्षि-ब्रम्हर्षि-आध्यात्मिक सन्त महात्मा ।
हंस
(हँसो) = जीवात्मा = जीव से आत्मा की ओर वाले होते हैं
योगी-महर्षि-ब्रम्हर्षि-आध्यात्मिक सन्त-महात्मागण ।
सोsहँ = आत्मा
जीव = आत्मा को जीव की ओर तो योगी-महर्षि-ब्रम्हर्षि-आध्यात्मिक सन्त-महात्मा भी
हो ही नहीं सकते क्योंकि इनकी तथाकथित योग-साधना भी विनाश को ले जाने वाली
पतनोन्मुखी ही है। फिर तो उर्ध्वमुखी हँसो वाले भी महर्षि-योगी-साधक सन्त-महात्मा
कैसे हो सकते हैं?
सोsहँ
वेदविरुद्ध है जबकि हँसो वेद-पुराणानुकूल है।
अतः
सोsहँ तथा ज्योति से युक्त साधकों ! आप लोगों द्वारा किए जा रहे
श्वाँस-प्रश्वाँस द्वारा सोsहँ का अजपा जाप की धारणा (सोsहँ) बिल्कुल ही गलत तो है ही, वेद-पुराण विरुद्ध भी
है। इस धारणा से युक्त होकर अजपा-जाप की प्रक्रिया की जाती है तो इसका फल (परिणाम)
भी उल्टा (विपरीत) ही होता है। अर्थात् बजाय अहं (हँ) रूप जीव, सः रूप आत्मा से युक्त होने के, और हँसो रूप जीवात्मा का तत्त्वज्ञान के माध्यम से तत्त्वरूप परमात्मा से
युक्त होकर मुक्त होने के, उल्टे सः रूप आत्मा वाली शक्ति
(तेज) को ही अहं (हँ) रूप जीव से युक्त होकर यह अहं (हँ) रूप जीव बहुत ही बलवान
(मिथ्याहंकारी) बनकर तत्त्वरूप परमात्मा के प्रतिकूल (अहंकार तथा सत्यज्ञान रूप
तत्त्वज्ञान के प्रतिकूल) मिथ्याज्ञानाभिमान का रूप लेकर सोsहँ-आत्मा
से जीव वाली पतनोन्मुखी होते-रहने वाली सहज स्थिति जो वास्तव में योग की कोई
क्रिया भी नहीं है, को ही तत्त्वज्ञान तथा इससे युक्त
अहंकारी रूप शरीर को ही तत्त्वज्ञानदाता या सद्गुरु रूप अवतारी घोषित कर
अनुयायियों को अपने साथ ही जढ़ देते हैं अर्थात् फंसा देते है जिससे कि वे सब
परमतत्त्वम् रूप परमात्मा की जानकारी, दर्शन तथा बातचीत करते
हुये पहचान से वंचित रह जाते हैंऔर पुनः संसार चक्र में चौरासी लाख का चक्कर काटते
रह जाते हैं और तत्त्वरूप परमात्मा भू-मण्डल से पुनः अपने परमधाम को वापस चला जाता
है।
अतः
पाठक बंधुओं ब योग-साधक बंधुओं ! प्रथमतः पतनोन्मुखी सोsहँ तो
विपरीत फलवाला होता है; द्वतीय हँसो भी जीवात्मा ही है, शुद्ध आत्मा भी नहीं तो तत्त्वज्ञान और परमात्मा होने के बात ही कहाँ? कदापि नहीं। भगवत्प्रेमी बंधुओं
! श्री हंसजी, श्री बालयोगेश्वर जी,
सतपाल, श्री साईं बाबा, श्री मेंही जी, श्री माँ आनन्दमयी, जयगुरुदेव, प्रजापिता ब्रम्हकुमारी, श्रीगुरु बचन जी, श्री आनन्दमूर्ति जी आदि-आदि सोsहँ तथा ज्योति से
युक्त जीतने भी तथाकथित महात्मागण-योगी-महर्षिगण रह रहे हैं तथा ज्योति से युक्त
जीतने भी तथाकथित महात्मागण-योगी-महर्षिगण रह रहे हैं तथा हैं, सभी अपने अहं (हँ) रूप जीव को सः रूप आत्मा से युक्त (हँसो) होकर
अपने पिता स्वामी-संचालक रूप परमतत्त्वम् रूप परमात्मा में अपने को विलय कर मुक्त
होने के बजाय अपने अहं (हँ) रूप जीव को ही सः रूप आत्मा के बार-बार दरश-पारश,
श्वाँस-प्रश्वाँस द्वारा अजपा जाप करके आत्मा रूपी शक्ति-सत्ता से शक्ति (तेज)
प्राप्त करके अपने अहं को और ही बलवती बना लेते हैं और इस बलवती अहंकार के द्वारा
तुच्छ अहंकार रूप अहं (हँ) रूप जीव को सोsहँ मंत्र द्वारा, वह भी वेद विरुद्ध उल्टी पद्धति अर्थात् गलत व विपरीत फल वाले पद्धति
द्वारा, फँस-फँसा कर भ्रामक रूप से प्रचार-प्रसार कर समाज
में अपना-अपना स्वार्थ रूप मान-मर्यादा, लोक-प्रतिष्ठा
स्थापित करने लगते हैं और कर भी रहे हैं जो समाज को धोखा में डाल-रखकर शोषण, धन-धरम दोनों का ही शोषण करने-कराने में लगे हैं।
भगवत्
प्रेमी पाठक बंधुओं ! यथार्थतः यह मंत्र है हँसो जिसका अर्थ होता है जीव का शरीर
से बहिर्मुखी होने-रहने के बजाय अंतर्मुखी होता-रहता हुआ आत्मा की ओर चलकर आत्मामय
होना-रहना-चलना क्योंकि हँ रूपी जीव, सः रूपी
आत्मा-ईश्वर-ब्रम्ह-नूर-सोल-दिव्य-ज्योति शिव से योग-अध्यात्म की साधना से युक्त
होकर ही तत्त्वज्ञान रूप सत्यज्ञान विधान से परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप
परमात्मा-परमेश्वर को यथार्थतः समझ-बूझ, जान-देख व बातचीत
करते हुये पहचान सकता है और सुगमता के साथ एकत्त्व बोध रूप मुक्ति-अमरता का
साक्षात् बोध भी प्राप्त कर सकता है।
इस
प्रकार हँसो तथा दिव्य ज्योति या आत्म-ज्योति केवल जीवात्मा का ही नाम व रूप होता
है; शुद्ध आत्मा का भी नहीं, परमात्मा का तो कदापि नहीं
होता। परमात्मा एक सर्वोच्च शक्ति-सत्ता रूप परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्द
रूप भगवत्त्त्वम् होता है।
अतः
भगवत् प्रेमी पाठक बंधुओं ! हँसो मंत्र को उल्टा कर देने पर देखा जाय कि किस प्रकार
जीव आत्मा और परमात्मा के तरफ जाने के बजाय विपरीत गति से विनाश की ओर पतनोन्मुख
होता हुआ किस प्रकार से विपरीत फल वाला होता जाता है। अब यह देखेँ-----
सोsहँ, जिसका अर्थ हुआ------आत्मा, जीव की ओर होता हुआ जीव
से शरीर की ओर। जैसे---कहा जाता है---पैर मोड़ (आसन) हाथ जोड़ (मुद्रा), कान-मूँद (अनहद-नाद), आँख-मूँद (ध्यान), जीभ-उलट (खेंचरी) अर्थात् समस्त इन्द्रियों को बंद शरीर भाव से ऊपर कर
(मूलाधार चक्र से आज्ञाचक्र का) अर्थात् हं को प्रश्वाँस (श्वाँस छोड़ते समय हँ)
द्वारा बाहर तथा सः रूपी आत्मा रूपी शक्ति (तेज) को श्वाँस द्वारा अंदर (श्वाँस
लेते समय सो) करते हैं। धारणा इनकी तो----‘’हं (मैं) जीव, सः (वह) आत्मा है’’ के बजाय उल्टी सः (वह आत्मा ही)
अहं (मैं) जीव है, अर्थात् सोsहँ (वही
मैं) हूँ, अर्थात् ‘हं’ (मैं) जीव को आत्मा में मिलने के बजाय आत्मा को ही ‘अहम्’ रूप जीव में जोड़कर अहंकार को ही वही मैं आत्मा
हूँ------ऐसा ही घोषित कर देते हैं। तत्पश्चात् जीव-भाव से शरीर-भाव की ओर आकर्षित
होता हुआ शरीर-परिवारमय होने रहने लगते हैं। जैसे गुरु की महिमा और उनके प्रति
सेवा-भक्ति की महिमा गा गाकर स्वयं सेवा-भक्ति करने-कराने लगते हैं जो योग-मार्ग
में सख्त वर्जित हैं क्योंकि सेवा-भक्ति शरीर-भाव में ही हो सकता है, आत्मा-भाव में नहीं। आत्मा-भाव में साधना का महत्त्व है, सेवा-भक्ति का नहीं।
सेवा-भक्ति
का महत्त्व ज्ञान-मार्ग में होता है क्योंकि ज्ञान-मार्ग
परमात्मा-परमेश्वर-खुदा-गॉड-भगवान् का मार्ग है। धर्म के अंतर्गत प्रेम, सेवा तथा
भक्ति का एकमात्र अधिकारी परमतत्त्वम् रूप परमात्मा वाला अवतारी शरीर ही होता है, अन्यथा दूसरा कोई नहीं। इसका एकमात्र कारण यह भी है कि परमात्मा अनन्य
प्रेम-सेवा-भक्ति ही चाहता है। अतः परमात्मा के अतिरिक्त अन्य किसी भी शरीर विशेष
को (योगी-आध्यात्मिक गुरु आदि को भी) प्रेम देना या उनके प्रति सेवा-भक्ति करना
पुनः जन्म-मृत्यु चक्र रूप संसार चक्र में पड़ना होता है। शरीर भी एक सांसारिक जड़
वस्तु में ही आता है, क्योंकि इसकी अपनी स्वयं की गति कुछ
नहीं होती है। यह चेतन (आत्मा व जीव) द्वारा क्रियाशील होता है। पतन रूप सोsहँ शरीरमय और उत्थान रूप हँसो शरीर से ऊपर जीव (अहं)
का आत्मा (सः) मय होना रहना।
अतः
साधक बंधुओं ! यह बात कि योग-अध्यात्म की साधना के माध्यम से आत्मा-ईश्वर-शिव का
दरश-परश करने के पश्चात् पुनः आत्मा को जीव (सोsहँ------वही मैं हूँ) ही
समझना क्योंकि नीचे से ऊपर को प्रारम्भिक ‘मैं’ जीव का ही संकेत होता है, आत्मा में तो ‘मैं’ होता ही नहीं। पुनः जीव से शरीर-परिवार के तरफ
बने रहना, तत्पश्चात् सांसारिकता जैसे मान-मर्यादा, यश-प्रतिष्ठा, जनसमूह व सम्पत्ति को आत्मा तथा परमात्मा
से भी अधिक महत्त्व-मर्यादा देते हुये शक्तिशाली समझने वाले भाव को प्रश्रय देना
आदि सांसारिकता ही तो है।
आत्मा
वाचक ‘मैं’ का तात्पर्य चेतन सत्ता से होता है अर्थात् यह
पूर्णतः चेतन-आत्मा का बोधक होता है।
सृष्टि
की उत्पत्ति दो वस्तुओं जड़ और चेतन से हुई है। संसार-परिवार-शरीर जड़ तथा जीव व
आत्मा चेतन होता है। चूँकि जीव मात्र अहंकार (मैं पन) ही होता है इसका कोई
स्वतंत्र-स्थाई अस्तित्त्व नहीं होता है। जीव आत्मा के माध्यम से परमात्मा का ही
प्रतिविम्ब मात्र होता है जैसे जल के बर्तन में सूर्य किरण के माध्यम से सूर्य का
गोला ही प्रतिविम्ब बनता है। ठीक उसी प्रकार से मानव शरीर के अंदर चित्त पटल पर
ज्योति रूपी आत्मा-शिव के माध्यम से परमात्मा का मैं ही अहंकार (मैं पन) रूपी जीव
(अहम्---मैं) बनता है व आभासित होता है। प्रतिविम्ब के समान ही वास्तव में इसका
कोई स्वतंत्र अस्तित्त्व नहीं होता है।
अतः
आत्मा-ईश्वर-शिव, परमात्मा-परमेश्वर-भगवान् से उत्पन्न एक प्रकार की चेतन ज्योति (चेतन
तेज) है जिसके द्वारा परमात्मा सृष्टि को उत्पन्न और संचालित करता रहता है। जिस
प्रकार सूर्य की शुद्ध रोशनी (किरण) में सूर्य का गोला कहीं नहीं दिखलायी देता है
उसी प्रकार परमात्मा की शुद्ध ज्योति ‘रूप आत्मा में परमात्मा
का ‘मैं’ कहीं भी नहीं दिखायी देता है अर्थात् ‘मैं’ कभी भी आत्मा नहीं है अर्थात् न तो ‘मैं आत्मा हूँ और न ही आत्मा ‘मैं’ ही हूँ। सच्चाई तो यह है कि ‘मैं’ तो ज्ञानरूप, तत्त्वरूप-परमात्मा-परमतत्त्वम् रूप
आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् रूप में होता है। अज्ञानरूप, अहंकार रूप मिथ्याभिमान रूप अहं-अहंकार ही जीव वाला ‘मैं’ होता है।
इस
प्रकार आत्मा ईश्वर-शिव एक प्रकार की परमात्मा-परमेश्वर-भगवान् से उत्पन्न आत्म
ज्योति दिव्य ज्योति, नूर, सु-प्रकाश, डिवाइन लाइट, चाँदना ज्योतिर्विन्दु शिव-हँसो ज्योति आदि है जिसको जानने व देखने के
लिए हमें योग-साधना-अध्यात्म की क्रियात्मक जानकारी तथा उसका अभ्यास करना पड़ता है।
योग के अन्तर्गत आत्मा के दर्शन के लिए ध्यान रूप दिव्य दृष्टि अत्यावश्यक होता
है। भ्रमवश योगी-यति, ऋषि-महर्षि,
सन्त-महात्मा आदिकाल से वर्तमान काल तक के समस्त योग साधना-ध्यान से सम्बंधित साधक, सिद्ध व बनने वाले गुरु भी भूल, भ्रम व
मिथ्याज्ञानवश आत्मा (चेतन) ईश्वर-शिव को ही परमात्मा-परमेश्वर-भगवान घोषित कर
देते हैं। विश्व की उत्पत्ति के विषय में श्रीरामचरितमानस में श्री तुलसीदास जी ने
भी लिखा है, देखें –
जड़
चेतन गुण दोषमय विश्व कीन्ह करतार ।
संत
हंस गुण गहहिं पय परिहरि वारि विकार ॥
व्याख्या
– विश्व के करतार परमात्मा ने जड़ और चेतन दो वस्तुओं से गुण और दोषमय दो विधानों
से विश्व की रचना की है जिसमें सन्त और हंस को एक समान ही बनाया है। जिस प्रकार हंस
दूध और पानी जैसे मिली हुई वस्तु में से भी सार वस्तु (दूध) को ग्रहण कर लेता है
और पानी को छोड़ देता है, ठीक उसी प्रकार सन्त जड़ और चेतन से युक्त शरीर में चेतन को स्वीकार कर जड़
को अस्वीकार कर देता है अर्थात् संत हंस का गुण ही ग्रहण करता है।
(क)चेतन को जड़ में परिवर्तित
करने वाला मार्ग – कर्ममार्ग या कर्म-काण्ड भी कहलाता है। ठीक इसके विपरीत—
(ख)जड़ से चेतनमय स्थिति में
परिवर्तित करने वाला मार्ग योग-मार्ग योग-अध्यात्म-साधना कहलाता है।
आत्मा
वाचक ‘मैं’ से तात्पर्य आत्मा वालों द्वारा उच्चारित ‘मैं’ से है। इन लोगों के कथनानुसार ‘मैं’ शरीर नहीं हूँ, ‘मैं’ आत्मा हूँ। मैं ब्रम्ह हूँ (सोsहँ) । वह ज्योति स्वरूप आत्मा ही ‘मैं’ हूँ – जो कोई मुझे जानना चाहे तो योग-अध्यात्म के क्रियारूप साधना द्वारा
ही जान सकता है। सोsहँ मुझ आत्मा का नाम तथा दिव्य-ज्योति, नूर, डिवाइन लाइट, चाँदना आदि
मेरा रूप है और समस्त भूत प्राणियों का हृदय-गुफा ही मेरा निवास स्थान है—ऐसा ये
आत्मा वाले भ्रमवश कहते हैं।
सोsहँ आत्मा
जीव की ओर या जीवमय आत्मा और हँसो व ज्योति रूपी जीवात्मा या आत्मामय जीव तो
सदा-सर्वदा भू-मण्डल पर ही रहता है। ऐसा सम्भव ही नहीं कि दुनिया रहे और यह चेतन
का दोनों रूप न रहे। जब जड़ और चेतन इन दोनों का संयोग मात्र ही संसार है तब यह
कैसे सम्भव माना जाय कि चेतन (आत्मा) यहाँ था ही नहीं और अब चेतन (आत्मा) का
भू-मण्डल पर अवतरण होगा या हो गया है।
यह
कितनी हास्यास्पद बात है कि जो आत्मा बराबर (सदा-सर्वदा) है ही, उसी आत्मा
वालों (सोsहँ-हँसो तथा ज्योति वालों) द्वारा यह कहा जाना है
कि –- मैं शरीर नहीं हूँ—मैं आत्मा हूँ। आत्मा ही परमात्मा है, मैं अवतरित हुआ हूँ। जो है ही, उसका अवतरण कैसा? अवतरण तो तब माना जाता जबकि आत्मा धरती पर रहती ही नहीं।
जिज्ञासुओं
को सोsहँ-हँसो, तथा ज्योति की साधना-अजपा जप यानी सोsहँ, श्वाँस-प्रश्वाँस द्वारा क्रियात्मक जाप यानी
हँसो तथा ध्यान द्वारा उन्ही (जिज्ञासुओं) के अन्दर हो रहे इस पतनोन्मुखी सहज
स्थिति रूप सोsहँ और क्रिया रूप हँसो-शिव-ज्योति को ही
परमात्मा का नाम-रूप कह कर व जना-दिखा कर कह देते हैं कि “आपको परमात्मा की
जानकारी तथा दर्शन हो गया। यही सोsहँ-हँसो ही परमात्मा का
नाम तथा दिव्य ज्योति, नूर, डिवाइन
लाइट, चाँदना ही परमात्मा का रूप है और वही मैं हूँ (सोsहँ)।” एक तरफ तो ये लोग यह कहते हैं कि ‘यह क्रिया
जीवों में अखण्ड रूप से चौबीसों घण्टा होती रहती है।’ इसका
रुकना ही मरना है। अर्थात् यह सदा-सर्वदा ही जीवों के साथ होता रहता है। और दूसरी
तरफ यह कहते हैं कि ‘मैं’ शरीर नहीं
हूँ बल्कि वही मैं हूँ (सोsहँ)। मैं समय-समय पर अवतार लेकर
धर्म की स्थापना तथा दुष्टों का संहार का सज्जनों की रक्षा व्यवस्था करता हूँ।
वेद-उपनिषद,
रामायण-गीता-पुराण, बाइबिल-कुरान,
गुरुग्रन्थ साहब आदि सद्ग्रंथ इन आत्मा वालों को अवतार नहीं स्वीकार करते हैं, मात्र योगी ऋषि-महर्षि, आध्यात्मिक सन्त-महात्मा
आदि ही स्वीकार करते हैं, क्योंकि – परमतत्त्वम् रूप
आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् ही एकमात्र
परमात्मा-परमब्रम्ह-परमेश्वर-अल्लाहतआला-खुदा-गॉड-भगवान सर्वोच्च शक्ति-सत्ता या
सार्वभौम सत्य होते हैं जो सदा अपने परम आकाश रूप परमधाम में ही रहते हैं। यही
परमतत्त्वम् रूपी परमब्रम्ह-परमात्मा का परमधाम से भू-मण्डल पर अवतरण होकर जिस
शरीर विशेष के माध्यम से अपने ‘तत्त्व’
का ज्ञान देने लगते हैं जो तत्त्वज्ञान कहलाता है, वह
तत्त्वज्ञान देने वाली शरीर विशेष ही एकमात्र अवतारी होता है, दूसरा कोई नहीं।
सोsहँ-हँसो और
ज्योति रूप आत्मा वाले तो एक साथ ही भू-मण्डल पर सैकड़ों हजारों में रहते हैं तथा
वर्तमान में भी हैं परन्तु परमतत्त्वम् रूप परमात्मा वाला शरीर या अवतारी भू-मण्डल
पर एक ही होता है जो सबका भेद (रहस्य) तो बताता है परन्तु उसका भेद (रहस्य) कोई भी
नहीं बता या जना पाता है।
३.
परमात्मा वाचक “मैं”
(आत्मतत्त्वम्
शब्दरूप परमतत्त्वम्)
शरीर
+ जीव + आत्मा + परमात्मा = तत्त्वज्ञानदाता या सद्गुरु या भगवदवतारी
शरीर
+ अहं + सः + परमतत्त्वम् अर्थात् शरीर + आत्मतत्त्वम् = भगवदवतारी
BODY
+ SELF + SOUL + GOD
जिस्म
+ रूह + नूर + अल्लाहतआला
कर्म
व शिक्षा + स्वाध्याय + योग-अध्यात्म की साधना + तत्त्वज्ञान।
आँख
व विद्या + सूक्ष्म दृष्टि + दिव्य दृष्टि + ज्ञान दृष्टि ।
दुःख
व सुख + आनन्द + चिदानन्द + सच्चिदानन्द ।
Education
+ Self Realization + Spiritualization + KNOWLEDGE
मोह-आसक्ति
व ममता + मान-प्रतिष्ठा + शान्ति + परमशान्ति ।
संसार
में + शरीर में + सर्वत्र व्यापक + परमधाम – अमरलोक में ।
आदर-सम्मान
+ सिद्धि – अहंकार + शान्ति-आनन्द-शिवलोक-ब्रम्हलोक + मुक्ति अमरता अमरलोक।
अभिमान
+ मिथ्याभिमान + मिथ्याज्ञानाभिमान + तत्त्वज्ञानरूप सत्यज्ञान
शरीराभिमान
+ जीवाभिमान + आत्माभिमान + सर्वशक्तिमान ।
(शरीर)
शिक्षक + स्वाध्यायी + गुरु + सद्गुरु
-------------------------------------- -------------------------------------------------
यह
सब पूर्ण नहीं हैं। यह
परमतत्त्वम् रूप ‘आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वम्’
ही पूर्ण है। यह ही
परमब्रम्ह-परमेश्वर है।
सर्वाजीवे
सर्वसंस्थे वृहन्ते अस्मिन् हँसो भ्राम्यते ब्रम्हचक्रे ।
पृथगात्मानं
प्रेरितारं च मत्वा जुष्टस्ततस्तेनामृत्तत्त्वमेति ॥
(श्वेताश्वतरोपनिषद
१/६)
पदार्थ
– अस्मिन् = इस; सर्वाजीवे = सबके जीवका रूप; सर्वसंस्थे = सबके
आश्रय भूत; बृहन्ते = विस्तृत;
ब्रम्हचक्रे = ब्रम्हचक्र रूप संसार चक्र में ; हंस =
जीवात्मा (हं=जीव, सः=आत्मा);
भ्राम्यते = घुमाया जाता है; (सः)= वह;
आत्मानम् = आ[ने आपको; च = और;
प्रेरितारम् = सबके प्रेरक परमात्मा को; पृथक = अलग-अलग; मत्वा = जानकर; तत: = उसके बाद; तेन = उस परमात्मा से जुष्ट = स्वीकृत होकर;
अमृत्तत्त्वम् = अमृत तत्त्वम् को; एति = प्राप्त हो जाता
है।
व्याख्या
– जो सबके जीवन निर्वाह हेतु हैं और जो समस्त प्राणियों का आश्रय हैं, ऐसे इस
जगत् रूप ब्रम्हचक्र में परमब्रम्ह परमात्मा द्वारा संचालित तथा परमात्मा के ही
विराट शरीर रूप संसार चक्र में यह जीवात्मा (हँसो) अपने कर्मों के अनुसार उन
परमात्मा द्वारा घुमाया जाता है। जब तक यह जीवात्मा (हँसो) इसके संचालक (परमात्मा)
को जानकर उनका कृपा पात्र नहीं बन जाता, अपने को उनका प्रिय
नहीं बना लेता, तब तक इस जीवात्मा का इस चक्र से छुटकारा
नहीं हो सकता। जब यह जीवात्मा (हँसो)
अपने को व सबके प्रेरक परमात्मा को भली-भाँति पृथक-पृथक समझ लेता है कि उन्ही के
घुमाने से मैं इस संसार चक्र में घूम रहा हूँ और उन्ही की कृपा से छूट सकता हूँ, तब यह उन परमेश्वर का प्रिय बनकर उनके द्वारा स्वीकार कर लिया जाता है।(कठोपनिषद
१/२/२३ और मुंडकोपनिषद ३/२/३ में भी इसी प्रकार का वर्णन है।) फिर तो वह
अमृततत्त्वम् को प्राप्त हो जाता है। जन्म-मरण रूप संसार चक्र से सदा के लिए छूट
जाता है। परमशान्ति एवं सनातन परमधाम को प्राप्त कर लेता है। (गीता १८/६१,६२)। श्वेताश्वतर उपनिषद अध्याय १ मन्त्र ६।
परमात्मा
वाचक “मैं” से तात्पर्य उस सर्वोच्च शक्ति-सत्ता से है जो शरीर होता ही नहीं। यह
सृष्टि के आदि से वर्तमान तक न तो कभी शरीर बना है और न वर्तमान में ही वह शरीर
है। यह “मैं” वह सर्वोच्च सत्ता है जिसके संकल्प मात्र से आदि-शक्ति (मूल-प्रकृति)
या महामाया तथा जड़ और चेतन (आत्मा) की उत्पत्ति होती है तथा जिसकी अध्यक्षता व
निर्देशन में आदि-शक्ति (मूल-प्रकृति) या महामाया ब्रम्हा, विष्णु, महेश को उत्पन्न कर सृष्टि की उत्पत्ति, संचालन व
संहार करती व कराती है। परमात्मा वाचक “मैं” को मात्र शरीर के रूप को जान, देख व बात-चीत करते हुये भी पहचान नहीं कर सकते हैं क्योंकि जो शरीर होता
ही नहीं, उसे मात्र शरीर के दरश-परश से कैसे जान-देख समझ
सकते हैं? अर्थात् नहीं समझ सकते। तब प्रश्न यह उत्पन्न होता
है कि जब परमात्मा वाचक “मैं” शरीर होता ही नहीं तो आखिर वह है क्या ? और उसे जाना, देखा व बात-चीत करते हुये पहचाना कैसे
जाय ? इसके लिए तुलनात्मक संकेत देखें और यथार्थता समझने की
कोशिश करें:-
सूर्य
किरण जलपात्र में – प्रतिबिम्ब – दर्पण में चमकता हुआ सूर्य जैसा ही मगर सूर्य
नहीं – खुला आकाश में परमात्मा-परमेश्वर, आत्मा-ईश्वर,
शरीर में – जीव-रूह-सेल्फ—योग-अध्यात्म में हँसो ज्योति आत्मा-ईश्वर मगर
परमात्मा-परमेश्वर नहीं – तत्त्वज्ञान वाला साक्षात् परमात्मा-परमेश्वर ही
परमात्मा – आत्मा – जीव – शरीर – स्वाध्यायी-जीव (अहं) – योगी (हँसो-ज्योति) –
अवतारी (शरीर + आत्मतत्त्वम् शब्दरूप परमतत्त्वम् में जिसमें सम्पूर्ण ब्रम्हाण्ड
स्थित होता रहता है)
परमात्मा
वाचक “मैं” वह परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप है जिसकी यथार्थ तुलना सृष्टि
की किसी भी वस्तु से नहीं की जा सकती है क्योंकि जिसकी उत्पत्ति, संचालन व
संहार ही, जिसके परमात्मा के संकल्प व इशारे पर ही उन्ही
आत्मतत्त्वम् रूप भगवत्तत्त्वम् के ही एक इकाई मात्र से ही उत्पन्न और दूसरी इकाई
द्वारा स्थित-संचालन होता है तो उससे उत्पन्न सृष्टि के अन्तर्गत रहने वाली किसी
वस्तु से तुलना कैसे किया जा सकता है ? अर्थात् किसी भी
वस्तु या व्यक्ति से उनकी तुलना नहीं किया या दिया जा सकता है। सम्पूर्ण सृष्टि ही
उसके संकल्प से उत्पन्न हुई है, उनके एक अंश से ही सृष्टि है
तो उस अंश की तुलना अंशवत ही हो सकती है, पूर्णतः उसकी तुलना
किसी से भी नहीं की जा सकती है। वह वही आत्मतत्त्वम् शब्दरूप परमतत्त्वम् ही है।
वे
इस सृष्टि में हर समय नहीं रहते हैं। कर्म काण्डियों और योग-अध्यात्म-साधना
मार्गियों रूपी जढ़ियों और मिथ्याज्ञानाभिमानियों द्वारा जो यह प्रचार व प्रसार
किया गया या किया जा रहा है कि वह परमात्मा कण-कण व सबके हृदय गुफा में रहता है। यह
बिल्कुल ही भ्रामक व मिथ्या है, असत्य है। वह परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम्
शब्दरूप परमात्मा सदा-सर्वदा परम आकाश रूप परमधाम मेन रहता है। समय-समय पर ॐ वाले
देवताओं तथा हँसो व ज्योति रूप आत्मा वाले नारद, ब्रम्हा जी, शंकर जी आदि के पुकार पर वह अपने अमरलोक रूप परमधाम से भू-मण्डल पर
अवतरित होते हैं। भू-मण्डल के जिस शरीर को अधिग्रहित (धारण) करते हैं उसी शरीर के
माध्यम से अपने परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् का ज्ञान देता
है जो तत्त्वज्ञान कहलाता है और स्पष्ट कर देता है कि यह परमतत्त्वम् ही जानने
योग्य तथा प्रवेश कर मुक्ति-अमरता पाने योग्य है।
चूंकि
कर्मकाण्डी व शास्त्री रूप जढ़ियों व मूर्खो द्वारा ॐ को तथा अधोमुखी द्वारा
पतनोन्मुखी सोsहँ उर्ध्वमुखी हँसो-शिव ज्योति रूप आत्मा वाले मिथ्याज्ञानाभिमानियों
द्वारा इसी आत्मा व जीवात्मा को परमतत्त्वम् रूप परमात्मा घोषित कर दिया जाता है तथा
योग-साधना (हँसो तथा ज्योति) जीव से आत्मा के मिलन के योग्य प्रक्रिया (आसन-प्राणायाम, धारणा व ध्यान) को ही तत्त्वज्ञान। इन वर्तमान में बनने वाले तथाकथित
अवता रियों जैसे----श्री बालयोगेश्वर जी, सतपाल, श्री साईंबाबा, श्री आनन्दमूर्ति जी, निरंकारी आदि द्वारा मिथ्याज्ञानाभिमान के कारण घोषित किया जा रहा है जो
बिल्कुल ही मिथ्या है। असत्य है तथा समाज के बीच एक प्रकार का भ्रामक प्रचार रूप
धोखा है जिसमें फँसकर लोग तत्त्वज्ञान रूप सत्य ज्ञान और परमतत्त्वम् रूप
आत्मतत्त्वम् शब्दरूप परमात्मा की यथार्थ जानकारी व पहचान से वंचित रह जाते हैं।
परमात्मा
वाचक ‘मैं’ ही यथार्थतः ‘मैं’ कहने का हकदार होता है क्योंकि यह एक ऐसा सक्षम सर्वसामर्थ्यवान व सर्वशक्तिमान
सत्ता है जो सृष्टि के समस्त मैं-मैं, तू-तू को अपने
परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप परमात्मा से उत्पन्न होते हुये तथा
तत्त्वज्ञान के द्वारा समस्त मैं-मैं, तू-तू को अपने
परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप परमात्मा में विलय (प्रवेश) कराते हुये
जना-दिखा, बात-चीत करते हुये, पहचान
कराते हुये जीव व आत्मा और परमात्मा तीनों का ही पृथक्-पृथक् यथार्थतः जनाते और
साक्षात् दिखाते हुये भी आश्चर्य है कि उसी तत्त्वज्ञान पद्धति से ही तीनों का
ही----सम्पूर्ण का ही एकत्वबोध कराकर दिखला देते हैं। जब कि उपर्युक्त पाँचों
प्रकार के ‘मैं’ में से किसी में भी
मैं-मैं, तू-तू को उत्पन्न व लय-विलय करने का सामर्थ्य नहीं
होता है। इसका कारण क्या है? इसका एकमात्र कारण यह है कि
परमात्मा वाचक ‘मैं’ के अतिरिक्त शेष
पाँचों प्रकार का -----१॰ शरीर वाचक ‘मैं’ २॰ गुण वाचक ‘मैं’ ३॰ कर्म
अथवा संबंध-पद वाचक ‘मैं’ ४॰ जीव वाचक ‘मैं’ और ५॰ आत्मा वाचक ‘मैं’ भी मिथ्या, भ्रामक व आभासित मात्र होता है यह समस्त
(पाँचों प्रकार के) ‘मैं’ ही असत्य
होता है। परमात्मा वाचक ‘मैं’ ही
एकमात्र सत्य ‘मैं’ होता है क्योंकि
उपर्युक्त समस्त शरीर, गुण, कर्म जीव
और आत्मा भी परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्द रूप परमात्मा से ही उत्पन्न व
स्थित और सृष्टि के अंत में (महाप्रलय के समय) और मध्य में तत्त्वज्ञान के माध्यम
से एकत्त्वबोध से परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप परमात्मा में ही विलय कर
जाते हैं। परन्तु जबजब परम आकाश रूप परमधाम से परमात्मा का भू-मण्डल पर अवतरण होता
है तब-तब परमात्मा वाली शरीर द्वारा तत्त्वज्ञान से ही जो विज्ञान का ही उच्चतम
यथार्थतः रूप है, के द्वारा समस्त मैं-मैं, तू-तू को अपने अंदर से उत्पन्न तथा अपने अन्तर्गत ही विलय कराकर स्पष्टतः
जना, दिखा तथा बात-चीत कराते हुये पहचान भी करा देता है।
श्री विष्णु जी, श्री रामचंद्र जी महाराज तथा श्री कृष्ण जी
महाराज मात्र इस तत्त्वज्ञान रूप सत्य-ज्ञान को ही दिये थे। आज-कल वर्तमान समय में
भू-मण्डल पर एक मात्र सदानन्द तत्त्वज्ञान परिषद्, ‘पुरुषोत्तम धाम आश्रम’ सिद्धौर-बाराबंकी (भारत) व
श्री हरिद्वार आश्रम हरिद्वार (उत्तरांचल) वाले सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी
परमहंस द्वारा ही वही तत्त्वज्ञान दिया जा रहा है जिससे हँसो, शिव ज्योति रूप आत्मा व ॐ को भी उत्पन्न तथा उसमें विलय कराते हुये
स्पष्टतः ढिखला दिया जाता है। जाँच-परख की खुली छूट है।
परमात्मा
वाचक ‘मैं’ अथवा परमतत्त्वम् रूप परमात्मा का यथार्थ ज्ञान, जो तत्त्वज्ञान कहलाता है, की एक सर्वश्रेष्ठ विशेषता
यह है कि इस ज्ञान कि पद्धति ही ऐसी है कि एक बार पूरे भू-मण्डल पर ही एक ही शरीर
द्वारा दिया जा सकता है। श्री बालयोगेश्वर जी, सतपाल, श्री राम शर्मा, श्री साईं नाथ, रजनीश आदि-आदि बनावटी तथाकथित अवतारियों द्वारा देय तथाकथित योग-साधना
पद्धति तो इन लोगों के तथाकथित महात्माओं द्वारा दिया जाता है, जनाया व क्रियाओं को कराया जाता है और कहा जाता है कि यही ज्ञान है जबकि
वह योग कि कुछ साधनायें (क्रियाएँ) ही मात्र होती हैं। वह भी हँसो ज्योति वाला, सोsहँ तो योग-अध्यात्म की साधना भी नहीं है। यह
आत्मा (सः) का जीव (हं) मय सहज ही पतनोन्मुखी सहज स्थिति है। साथ ही यह भी कहा
जाता है कि यह उनके सिवाय कोई और दे ही नहीं सकता। परंतु यथार्थतः तत्त्वज्ञान में
ऐसा नहीं हो सकता। हो ही नहीं सकता।
तत्त्वज्ञानदाता
किसी को महात्मा नियुक्त करके भी उसके द्वारा तत्त्वज्ञान को नहीं दिला सकता है।
चाहे जो हो पूरे भू-मण्डल पर ही एक शरीर द्वारा ही यह ज्ञान (तत्त्वज्ञान) दिया जा
सकता है, जैसे ही दो शरीर तत्त्वज्ञान देने लगेगी, तब यह
निश्चित ही है कि उसमें से एक ही सत्य होगा। इसीलिए इसे सत्यज्ञान भी कहा जाता है।
सत्य एक ही है इसकी जानकारी पद्धति भी एक ही है इसीलिए इसका दाता भी एक ही होता
है। जैसे किसी भी समय (सत्ययुग, त्रेता, द्वापर कलियुग में किसी एक व्यक्ति का परिचय-पत्र को दो व्यक्तियों
द्वारा नहीं दिखाया जा सकता है। ठीक उसी प्रकार तत्त्वज्ञान-खुदा-गॉड-भगवान या
सर्वोच्च शक्ति-सत्ता का एक परिचय-पत्र मात्र ही होता है जिसका प्रयोग एक ही के
लिए एक ही के द्वारा प्रयोग हो सकता है। अतः सद्गुरु के अतिरिक्त उसके चाहने पर भी
किसी भी अन्य शरीर द्वारा यथार्थतः तत्त्वज्ञान दिया ही नहीं जा सकता है।
परमात्मा
वाचक ‘मैं’ का परम आकाश रूप परमधाम से भू-मण्डल पर जब
अवतरण होकर जिस शरीर को धा रण कर लिया जाता है तब परमतत्त्वम् रूप परमात्मा से
युक्त वह शरीर मात्र ही अवतारी कहलाता है जो एक बार पूरे भू-मण्डल पर एक ही होता
है, दो भी नहीं, अधिक कि तो बात ही
क्या? और उसी अवतारी रूप परमतत्त्वम् रूप परमात्मा से
युक्त-शरीर द्वारा दिया जाने वाला परमतत्त्वम् रूप परमात्मा का, परिचय-पत्र के समान ही स्पष्टतः पूर्ण परिचय रूप जानकारी, दर्शन तथा बातचीत करते हुये पूर्ण रूपेण पहचान ही तत्त्वज्ञान रूप
सत्यज्ञान कहलाता है। चूंकि परमात्मा, शरीर तो होता नहीं, वह तो एकमात्र परमतत्त्वम् रूप सर्वोच्च शक्ति-सत्ता होता है।
इस
ज्ञान के अन्तर्गत खुदा-गॉड-भगवान या सर्वोच्च शक्ति-सत्ता जो यथार्थतः ‘तत्त्व’ परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् ही है, का ज्ञान होता है; ॐ व ‘सोsहँ’ ‘हँसो’ शिव ज्योति आदिरूप जीवात्मा व आत्मा का नहीं। इसीलिए यह ज्ञान, योग-साधना न कहलाकर, एकमात्र तत्त्वज्ञान ही कहलाता
है अर्थात् इसके अन्तर्गत तत्त्व के द्वारा ही तत्त्व को ही जाना, देखा तथा परमतत्त्वं रूप आत्मतत्त्वम् शब्द रूप अलम रूप गॉड शब्दरूप खुदा-गॉड-भगवान
से ही बात-चीत करते हुये तत्त्व को ही पहचाना जाता है।
तत्त्वज्ञान
में किसी भी प्रकार के जप, तप, व्रत, नेम, पुजा-पाठ तथा योग-साधना अथवा अध्यात्म आदि की आवश्यकता ही नहीं पड़ती है।
यह तत्त्वज्ञान तो सीधे ही जीव का खुदा-गॉड-भगवान या सर्वोच्च शक्ति-सत्ता से ही
आत्मा-ईश्वर-ब्रम्ह-शिव ज्योति हुआ दिखाई देता हुआ मिलन व पहचान की एकमात्र पद्धति
है। इस तत्त्वज्ञान के दाता अब तक मात्र श्री विष्णुजी महाराज, श्री रामचन्द्र जी महाराज व श्री कृष्ण जी महाराज ही रहे हैं।
वर्तमान
में वही तत्त्वज्ञान एकमात्र सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस, सदानन्द तत्त्वज्ञान
परिषद श्रीहरि द्वार आश्रम, रानीपुर मोड़ – रेलवे फाटक से
उत्तर हिल बाई पास रोड़ हरिद्वार – उत्तरांचल फोन न॰ – ०१३३-२२४५८० मुख्यालय ‘पुरुषोत्तम धाम आश्रम’ सिद्धौर – बाराबंकी उ॰ प्र॰
(भारत) वाले द्वारा ही प्रदान हो रहा है। जबकि ॐ तथा कर्मकाण्ड हँसो ज्योतिरूप तथा
योग-साधना के दाता तो एक साथ ही हजारों-हजारों रहे हैं और वर्तमान में भी हैं, अर्थात् आदिकाल से ही वर्तमान तक के समस्त ऋषि,
महर्षि, योगी-यती, सिद्ध, सन्त महात्मा आदि भी कर्मकाण्ड तथा योग-साधना आदि मात्र से ही सम्बंधित
रहे हैं, फिर भी भूल, भ्रम एवं
मिथ्याज्ञानाभिमानवश कर्मकाण्डी ॐ तो तथा योग-अध्यात्म-साधना मार्गी हँसो-शिव
ज्योति को ही जीवात्मा-आत्मा कहते हुये इन्हे ही परमात्मा भी घोषित कर अपने
अनुयायियों को भ्रमितकर अपने पीछे चिपकाये (फँसाये) रहते हैं जिससे कि वे
अनुयायीगण यथार्थतः आत्मतत्त्वम् रूप खुदा-गॉड या सर्वोच्च-शक्ति-सत्ता की जानकारी, दर्शन, बात-चीत करते हुये पहचान तथा परमशान्ति, परमानन्द परमपद अमरता तथा मानव जीवन के परम लक्ष्यरूप पाप-मुक्ति तथा
मोक्ष आदि से वंचित रह जाते हैं।
इतना
ही नहीं इस अध्यात्म-योग-साधना में – सृष्टि में समस्त योग-साधकों में उच्चतम
स्थान वाले नारद, ब्रम्हा तथा श्री शंकर जी जो क्रमशः सृष्टि के प्रधान निरीक्षक, विधायक (उत्पत्तिकर्ता) तथा प्रधान दण्डाधिकारी व प्रधान कल्याणकारी (तथा
संहारक) तक भी परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् रूप परमात्मा
परमेश्वर-खुदा-गॉड-भगवान को नहीं जानते हैं। इसका प्रमाण तथा अवतार कब और किस
प्रकार होता है – यह प्रसंग श्री शंकर जी द्वारा कहा गया। पार्वती द्वारा सुना गया
तथा श्री तुलसीदास जी द्वारा लिखा श्री रामचरितमानस के बालकाण्ड में देखें –
बाढे
खल बहु चोर जुआरा । जे लम्पट पर धन परदारा ॥
मानहि
मातु-पिता नहिं देवा । साधुन्ह सन करवावहि सेवा ॥
(श्रीरामचरित
मानस १८३/१)
पराया
धन और परायी स्त्री पर मन चलाने वाले, दुष्ट, चोर
और जुआरी बहुत बढ़ गये। लोग माता-पिता और देवताओं को नहीं मानते और साधुओं (की सेवा
करना तो दूर रहा उल्टे उन) से सेवा करवाते थे।
जिन्हके
यह आचरण भवानी। ते जानेहु निसिचर सब प्राणी ॥
अतिसय
देखि धर्म कै ग्लानी । परम सभीत धरा अकुलानी ॥
{श्री शंकर जी कहते हैं} हे भवानी ! जिनके ऐसे आचरण
हैं, उन सब प्राणियों को निशाचर (राक्षस) ही समझना। इस
प्रकार धर्म के प्रति (लोगों की) अतिशय ग्लानि (अरुचि,
अनास्था) देखकर पृथ्वी बहुत भयभीत एवं व्याकुल हो गई।
गिरि
सरि सिन्धु भार नहिं मोही। जस मोहिं गरुअ एक पर द्रोही ॥
सकल
धर्म देखइ विपरीता । कहि न सकइ रावण भयभीता ॥
(पृथ्वी
सोचने लगी कि) पर्वतों, नदियों और समुद्रों का बोझ मुझे इतना भारी नहीं जान पड़ता है जितना कि
भारी एक परद्रोही (दूसरों का अनिष्ट करने वाला) लगता है। पृथ्वी सारे धर्मों को
विपरीत देख रही है, (जो ऋषि-मुनि-महर्षिगण-योगी-यति-आध्यात्मिक, सन्त-महात्मागण करने आए थे भगवद् भक्ति-सेवा मगर अपने शिष्य-अनुयायियों
में बन बैठे हैं परमात्मा-परमेश्वर-खुदा-गॉड-भगवान। इतना ही नहीं, अपने-अपने जीव को ही आत्मा-ईश्वर-शिव-ब्रम्ह और इसी
आत्मा-ईश्वर-ब्रम्ह-शिव को ही परमात्मा-परमेश्वर-खुदा-गॉड-भगवान भी कहने मानने और
मनवाने लगे हैं। इस ॐ – सोsहँ – हँसो-शिव ज्योति को ही
परमतत्त्व्म् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप परमात्मा तथा योग-अध्यात्म की क्रिया को ही
तत्त्वज्ञान रूप सत्यज्ञान भी कहने लगे हैं। बड़े ही बेशर्मीपन से निर्भयतापूर्वक
पृथक परमात्मा एवं तत्त्वज्ञान पद्धति और ज्ञानदृष्टि को भी अस्वीकार कर-करवा रहे
हैं। अर्थात् भगवान के नाम पर ही दाल-रोटी सेंकने वाले भगवान को ही नकार दे रहे
हैं। निःसन्देह ये सभी ही मीठे जहर रूप भगवद्द्रोही हैं।) पर रावण से भयभीत हुई वह
कुछ बोल नहीं पा रही है।
(श्रीरामचरित
मानस - बालकाण्ड)
धेनु
रूप धरि हृदय विचारी । गई तहाँ जहँ सुर मुनि झारी ॥
निज
संताप सुनाएसि रोई । काहू ते कुछ काज न होई ॥
(श्रीरामचरितमानस
१८३/४)
(अन्त
में) हृदय में सोच विचार कर, गौ का रूप धारण कर धरती वहाँ गयी, जहाँ सब देवता और मुनि थे। पृथ्वी ने रोकर उनको अपना दुःख सुनाया पर किसी
से कुछ काम न बना।
सुर
मुनि गन्धर्वा मिलि करि सर्वा गे विरंचि के लोका ।
संग
गो तनुधारी भूमि विचारी परम विकल भये सोका ।
ब्रम्हा
सब जाना मन अनुमाना मोर कछु न बसाई ।
जाकरि
तै दासी सो अबिनासी हमरेउ तोर सहाई ।
तब
देवता, मुनि और गन्धर्व सब मिलकर ब्रम्हाजी के लोक को गये भय और शोक से अत्यन्त
व्याकुल बेचारी पृथ्वी भी गौ का शरीर धारण किए हुए उनके साथ थी। ब्रम्हा जी सब जान
गये। उन्होने मन में अनुमान किया कि इसमें मेरा कुछ भी वश नहीं चलेगा। (तब उन्होने
पृथ्वी से कहा) जिसकी तू दासी है वही अविनाशी परमप्रभु हमारा और तुम्हारा दोनों का
सहायक है।
धरनि
धरहिं मन धीर कह विरंचि हरिपद सुमिरु ।
जानत
जन की पीर प्रभु भंजिहि दारून विपति ।
(सोरठा
१८४)
ब्रम्हा
जी ने – हे धरती ! मन में धीरज करके श्रीहरि के चरणों का स्मरण करो। प्रभु अपने दासों
के पीड़ा को जानते हैं। वे तुम्हारी कठिन विपत्ति का नाश करेंगे ।
बैठे
सुर सब करहिं विचारा। कहँ पाइअ प्रभु करिअ पुकारा ॥
पुर
बैकुण्ठ ज्ञान कह कोई। कोउ कह पयनिधि बस प्रभु सोई ॥
सब
देवता बैठकर विचार करते हैं कि प्रभु को कहाँ पावें ताकि उनके सामने पुकार करें।
कोई कहता है कि मैं जानता हूँ वे बैकुण्ठपूरी में रहते हैं और कोई कहता है कि वही
परमप्रभु हैं जो क्षीर सागर में निवास करते हैं।
(श्रीरामचरित
मानस १८४/१)
जाके
हृदय भगति जसि प्रीति । प्रभु तहँ प्रगट होहिं तेहि रीति ॥
तेहि
समाज गिरिजा में रहेऊँ । अवसर पाइ वचन एक कहेऊँ ॥
(श्रीरामचरित
मानस १८४/२)
जिसके
हृदय में जैसी भक्ति और प्रीति होती है; प्रभु वहाँ उसी रीति से प्रगट होते
हैं, हे पार्वती ! उस समाज (बैठक-सभा) में मैं भी थ। अवसर
पाकर मैंने भी एक बात कही।
हरि
व्यापक सर्वत्र समाना। प्रेम ते प्रगट होहिं मैं जाना ॥
देश
काल दिशि विदिसिहु माही । कहहु सो कहाँ-जहाँ प्रभु नाहीं ॥
(श्रीरामचरित
मानस १८४/३)
मैं
तो यह जानता हूँ कि भगवान सब जगह समान रूप से व्यापक हैं, प्रेम से
प्रगट हो जाते हैं। देश, काल,
दिशा-विदिशा में बताओ, ऐसी जगह कहाँ है जहाँ प्रभु न हों।
अग
जगमय सब रहित विरागी । प्रेम तें प्रभु प्रगटइ जिमि आगी ॥
मोर
बचन सबके मनमाना । साधु-साधु करि ब्रम्ह बखाना ॥
(श्रीरामचरित
मानस १८४/४)
वे
चराचर होते हुये ही सबसे रहित हैं और विरक्त हैं; वे प्रेम से प्रगट होते हैं, जैसे अग्नि। मेरी बात सबको प्रिय लगी। ब्रम्हा जी ने साधु-साधु कह कर
बड़ाई की।
सुनि
विरंचि मन हरष तन पुलकि नयन बह नीर ।
अस्तुति
करत जोरि कर सावधान मति धीर ॥
(श्रीरामचरित
मानस १८४/५)
मेरी
बात सुनकर ब्रम्हाजी के मन में बड़ा हर्ष हुआ, उनका तन पुलकित हो गया और नेत्रों
से आँसू बहने लगे। तब वे धीर-बुद्धि ब्रम्हाजी सावधान होकर हाथ जोड़कर अस्तुति करने
लगे।
छन्द—
जय-जय
सुरनायक जन सुखदायक प्रनतपाल भगवंता ।
गो
द्विज हितकारी जय असुरारी सिंधुसुता प्रिय कन्ता ।
पालन
सुरधरनी अद्भुत करनी मरम न जानइ कोई ।
जो
सहज कृपाल दीनदयाला करउ अनुग्रह सोईं ।
(श्रीरामचरित
मानस १८५/१)
हे
देवताओं के स्वामी, सेवकों को सुख देने वाले, शरणागत की रक्षा करने
वाले भगवान ! आप की जय हो ! जय हो !! हे गो-ब्राम्हणों का हिट करने वाले, असुरों का विनाश करने वाले, समुद्र की कन्या (श्री
लक्ष्मी जी) के प्रिय स्वामी ! आप की जय हो ! हे देवता और पृथ्वी
का पालन करने वाले ! आप की लीला अद्भुत है उसका भेद कोई नहीं जानता ! ऐसे जो
स्वभाव से ही कृपालु और दीन दयालु है, वे ही हम पर कृपा करें
!
जय
जय अविनाशी सब घटवासी व्यापक परमानन्दा ।
अविगत
गोतीतं चरित पुनीतं मायारहित मुकुन्दा ।।
जेहि
लागि विरागी अति अनुरागी विगत मोह मुनिवृन्दा ।
निसिवासर
ध्यावहिं गुनगनगावहिं जयति सच्चिदानन्दा ।।
(श्रीरामचरित
मानस १८५/२)
हे
अविनाशी, सबके हृदय में निवास करने वाले, सर्वव्यापक, परम आनन्द, स्वरूप, अज्ञेय, इन्द्रियों से परे, पवित्र चरित्र, माया से रहित, मुकुन्द (मोक्ष दाता) आप की जय हो !
जय हो !! विरक्त तथा मोह से सर्वथा छूटे हुये मुनिवृन्द भी अत्यन्त अनुरागी बन कर
जिनका रात-दिन ध्यान करते हैं और जिनके गुणों के समूह का गान करते हैं, उन सच्चिदानन्द की जय हो।
जेहि
सृष्टि उपाई त्रिविध बनाई संग सहाय न दूजा ।
सो
करउ अधारी चिंत हमारी जानिय भगति न पूजा ।।
जो
भव भंजन मुनि मन रंजन गंजन विपति वरूथा ।।
मन
बच क्रम बानी छाडि सयानी सरन सकल सुरजूथा ।।
(श्रीरामचरित
मानस १८५/३)
जिन्होंने
बिना किसी संगी अथवा सहायक के अकेले ही तीन प्रकार की सृष्टि उत्पन्न की, वे पापों
का नाश करने वाले भगवान् हमारी सुधि लें । हम न भक्ति जानते हैं न पूजा। जो संसार
के (जन्म-मृत्यु के) भय का नाश करने वाले, मुनियों के मन को
आनन्द देने वाले और विपत्तियों के समूह को नष्ट करने वाले हैं, हम सब देवताओं के समूह मन, वचन और कर्म से चतुराई
करने की बात छोड़ कर उन (भगवान्) की शरण आए हैं।
सारद
श्रुति सेषा रिषय असेषा जा कहुं कोउ नहिं जाना ।
जेहि
दीन पिआरे वेद पुकारे द्रवहु सो श्री भगवाना ।।
भव
बारिधि मंदर सब विधि सुन्दर गुन मंदिर सुख पुंजा ।।
मुनि
सिद्ध सकल सुर परम भयातुर नमत नाथ पदकंजा ।।
(श्रीरामचरित
मानस १८५/४)
सरस्वती, वेद, शेष जी और सम्पूर्ण ऋषि कोई भी जिनको नहीं जानते,
जिन्हें दीन प्रिय हैं, ऐसा वेद पुकार कर कहते हैं, वे ही श्री भगवान हम पर दया करें। हे संसार रूपी समुद्र के (मथने के) लिए
मंदराचल रूप सब प्रकार से सुंदर, गुणों के धाम और सुखों की
राशि नाथ ! आप के चरण-कमलों में मुनि, सिद्ध और सारे देवता
भय से अत्यन्त व्याकुल होकर नमस्कार करते हैं।
(श्रीरामचरित
मानस । बालकाण्ड । दोहा। १८५ । छंद ४)
दोहा----जानि
सभय सुर भूमि सुनि बचन समेत सनेह ।
गगन
गिरा गम्भीर भई हरनि सोक सन्देह ।।
(श्रीरामचरित
मानस १८६/४)
देवता
और पृथ्वी को भयभीत जानकर और उनके स्नेह युक्त वचन सुनकर शोक औए स्नेह को हरने
वाली गम्भीर आकाशवाणी हुई
जनि
डरपहु मुनिसिद्धि सुरेशा । तुम्हहिं लागि धरिहऊँ नरवेसा ।
अंशन्ह
सहित मनुज अवतारा । लेहऊँ दिनकर बंस उदारा ।।
(श्रीरामचरित
मानस १८६/४)
हे मुनि, सिद्ध और देवताओं के स्वामियों !
डरो मत। तुम्हारे लिए मैं मनुष्य का रूप धारण करूँगा और उदार सूर्य वंश में अंशो
सहित मनुष्य का अवतार लुंगा।
इस
प्रकार उपरोक्त प्रकरण से स्पष्टतया दिखलाई दे रहा है कि----ॐ, सोsहँ-हँसो सो-शिव ज्योति-साधना के ज्ञाता नारद,
ब्रम्हा तथा श्री शंकर जी को भी परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप परमात्मा की
निश्चित् जानकारी नहीं थी। चूंकि चारों व्यक्ति सृष्टि के प्रधान कार्यकर्ता के
रूप में पदासीन या नियुक्त कर दिये गए (जैसे नारद जी सृष्टि महानिरीक्षक, ब्रम्हाजी—विधायिका के अध्यक्ष, श्री विष्णु
जी-संचालक (सृष्टि के शासक) तथा श्री शंकर जी-मुख्य सृष्टि न्यायाधीश (दण्डाधिकारी
व कल्याणकारी) ।
अतः
जब-जब ये उपर्युक्त सृष्टि-अधिकारीगण सृष्टि की व्यवस्था सम्हालने में अपने को
असमर्थ पते हैं तब-तब सृष्टि के प्रधान संचालक रूप परमतत्त्वम् रूप परमब्रम्ह-परमात्मा
के अवतरण हेतु प्रार्थना करते हैं, तब वह परमतत्त्वम् रूप परमात्मा
अपने अवतरण का संकेत देते हुये अवतरित होते हैं।
इसी
प्रकार जैसा कि श्रीरामचरितमानस का उपर्युक्त प्रकरण दिया गया है, वैसा ही
क्रिया-प्रक्रिया सत्ययुग में भी हुई थी
जब कि देवासुर संग्राम में देवताओं की पराजय हुई थी। उस समय भी परम आकाश रूप
परमधाम के वासी परमतत्त्वम् रूप परमात्मा का अवतरण श्री विष्णु जी महाराज वाली
शरीर के माध्यम से हुआ था। श्री विष्णु जी अपने उपदेश में श्री गरुण जी को कभी भी
श्री विष्णु जी वाली शरीर को जानने-देखने तथा उसमें निष्ठा की बात नहीं कहे थे
बल्कि परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् रूप परमात्मा-परमेश्वर
को ही जनाया दिखाया था तथा प्रत्येक को श्री गुरुमुख से परमतत्त्वम् रूप
आत्मतत्त्वम् को ही जानने-देखने-समझने पाने को कहा कहा है तथा मुक्ति-अमरता, परम शांति, परमानन्द तथा परमधाम में जाने का
एकमात्र परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् रूप परमात्मा के
ज्ञान, जो तत्त्वज्ञान कहलाता है, को
ही बताया है। ॐ मंत्र-तंत्र वाले कर्मकाण्ड और सोsहँ-हँसो
शिव ज्योति वाले योग-साधना आदि को नहीं।
उपर्युक्त
प्रकार से स्थिति-परिस्थिति के उत्पन्न हो जाने पर त्रेतायुग में भी जैसा कि पीछे
प्रसंग में वर्णित है, भगवत्तत्त्वम् रूप परमात्मा अपने
परमधाम से भू-मण्डल पर श्री रामचन्द्र जी महाराज वाली शरीर के माध्यम से प्रकट या
अवतरित हुये। पहले आकाशवाणी के माध्यम से सूचना भी मिल चुकी थी फिर भी किसी ने भी
बजाय उन्हें जानने व पहचानने के व साथ देने के कर्मकाण्डी बनने वाले विद्वान् रावण
आदि तथा राजा-शासक, बालि, खरदूषण, त्रिसरा आदि संघर्ष व युद्ध किए बिना नहीं माने तथा सोsहँ-हँसो-शिव ज्योति वाले श्री बाल्मीकि जी जैसा रामायण रचयिता ब्रम्हर्षि
भी विरोध में प्रचार-प्रसार कराने से नहीं माने। और अन्य सोsहँ-हँसो-शिव
ज्योति वाले शान्त पड़े रहे। सेवा-सहयोग रूप में कोई भी साथ नहीं दिया।
उपर्युक्त
प्रकार से ही सत्ययुग में ही श्री विष्णु जी महाराज व त्रेतायुग में श्री
रामचन्द्र जी महाराज जैसी ही परिस्थिति में श्री कृष्ण जी महाराज के साथ भी थी, जब कि वही
परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् रूप परमात्मा उन्हीं
प्रक्रियाओं से ही पहले आगमन की सूचना देते हुये श्री कृष्ण जी वाली शरीर शरीर के
माध्यम से प्रकट या अवतरित हुये थे। श्री कृष्ण जी महाराज के समय कालीन महात्माओं, विद्वान, आचार्यगण,
ऋषि-महर्षि उन्हें बिल्कुल ही नहीं स्वीकार किए थे इन्द्र,
ब्रम्हा जी व शंकर जी भी टकराए-संघर्ष व युद्ध किए बिना नहीं माने। अन्य की बात ही
क्या किया जाय, जबकि श्री कृष्ण जी महाराज बार-बार यह कहते
थे कि बंधुओं ! ‘मेरी जानकारी शारीरिक रूप मात्र से नहीं हो
सकती है, यदि किसी को जानकारी करनी हो तो तत्त्वत: ही मुझे
कोई जान सकता है’ । सभी सूचनाएँ, व
घोषणाओं के बावजूद भी बिना गीता का ज्ञान या तत्त्वज्ञान के अर्जुन भी नहीं
जान-समझ पाये थे, अन्य की बात क्या हो ! अर्थात् श्री कृष्ण
जी महाराज भी परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् रूप
परमात्मा-परमेश्वर को ही जनाते, दिखाते व प्रवेश कराते रहे हैं, ॐ सोsहँ-हँसो-शिव तथा ज्योति मात्र का प्रतिपादन नहीं किया था।
जब-जब
परम आकाश रूप परमधाम के वासी, परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वम्
रूप परमात्मा-परमेश्वर का भू-मण्डल पर अवतरण होना होता है तभी से लेकर अवतरित सत्ता
(परमात्मा) द्वारा गुप्त रूप से भू-मण्डल का निरीक्षण रूप परवीक्षण करते रहने पर अतींद्रिय
क्षमता वाले भविष्य वक्ता, ज्योतिर्विद आदि व्यक्तियों द्वारा
नाना तरह की भविष्य-वाणियाँ-संकेत आदि समाज के समक्ष रखते हैं ताकि लोग अपनी गतिविधियों
को दुराचार से सदाचार की ओर बदलकर अवतरित सत्ता की जानकारी, पहचान
व दरश-परश करते हुये अपना परम कल्याण करावें। मानव जीवन के मंजिल रूप मोक्ष (मुक्ति-अमरता)
को उनसे प्रति समर्पित-शरणागत होते रहते हुये तत्त्वज्ञान के द्वारा साक्षात् दर्शन
और मुक्ति-अमरता का साक्षात् बोध प्राप्त कर अपने-अपने जीवन को कृतार्थ करें, धन्य धन्य बनावें।